'यह संभव है कि स्वायत्तता का उद्घोष करते हुए लेखक किसी समूह या संगठन से न जुडऩा चाहे, लेकिन यह भी उतना ही मुमकिन है कि समूह-संगठन से जुड़ा लेखक सार्वजनिक भूमिका निभाने नहीं, वरन् व्यक्तिगत स्वार्थवश उसमें सम्मिलित हुआ हो! बहरहाल, हमारे सामने साक्ष्य हैं कि बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की दुनिया में मौजूदा परिस्थितियों से विचलित-व्यथित, कितने ही प्रतिभाशाली व प्रतिष्ठित लेखक हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे रहे।
उन्होंने जहां अपनी रचनाओं से पीड़ितजनों में उत्साह का संचार किया, उनकी संघर्षशीलता को धार दी, वहीं वे एक चेतनासंपन्न नागरिक के रूप में भी निजी भूमिका निभाने के लिए तत्पर हुए।
स्पेन का गृहयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, तानाशाहियाँ, सैनिक शासन, साम्राज्यवाद इनके विरुद्ध लेखकों की सजग भूमिका के अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। ऐसे अवसरों पर हमने उन्हें किसी राजनैतिक दल के सदस्य के रूप में देखा तो कभी जनयुद्ध में एक सैनिक के रूप में, कभी भूमिगत आंदोलन के कार्यकर्ता के रूप में। गरज यह कि उन्होंने संगठन के स्तर पर काम करने से स्वयं को दूर नहीं रखा।'
(अक्षर पर्व सितंबर 2016 अंक की प्रस्तावना)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2016/09/blog-post_5.html